मात्र
तीन वर्षों में 1,073 एकड़ यानी 412 फुटबॉल मैदानों के बराबर फौजी जमीन को
बिल्डर और प्राइवेट डेवलपर
अतिक्रमण के जरिए हड़प चुके हैं. मार्च, 2011 में सरकार यह बात बिना
राग-द्वेष के स्वीकार कर चुकी है. सरकार ने आंकड़े उपलब्ध कराए थे कि सैनिक
क्षेत्रों में अतिक्रमण 3510.16 एकड़ से बढ़कर 4,583.58 एकड़ हो चुका है.
सैन्य संपदा महानिदेशालय (डीजीडीई) ने अपनी सीधे स्वामित्व वाली 66,000 एकड़
भूमि पर इन अतिक्रमणों की सूचना दी थी.
डीजीडीई रक्षा मंत्रालय में वह विभाग है, जो अतिक्रमण के खतरे वाली 20 लाख करोड़ रु. मूल्य की 17 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन के ऑडिट, लेखांकन और वित्तीय प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है. इसमें से लगभग 11,000 एकड़ जमीन चुराई जा चुकी है और किसी को इसकी परवाह नहीं है. हजारों करोड़ रु. मूल्य की जमीन के रिकॉर्ड सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक डाटाबेस के बजाए जीर्ण-शीर्ण कागज के रजिस्टरों में दर्ज हैं. इस जमीन का सीमांकन नहीं हुआ है और इससे भी खराब बात यह है कि सेना के अधिकारियों, डिफेंस एस्टेट के अधिकारियों और बिल्डरों की एक भ्रष्ट सांठगांठ इस जमीनी पूंजी में से मोटा हिस्सा हड़प लेती है.
डीजीडीई के पास सैन्य भूमि को संभालने के लिए 1,251 अधिकारी हैं, लेकिन इसकी सुरक्षा कर सकने में नाकाम रहने के लिए किसी को भी जिम्मेदार नहीं माना गया है. रक्षा मंत्रालय को अपना प्रस्तावित रक्षा भूमि प्रबंधन विधेयक संसद में पेश करना अभी बाकी है. अगर फौजी जमीन को लूटने के लिए कोई घोटालेबाज अपना मैनुअल बनाए, तो वह कुछ इस प्रकार होगाः
1. कमजोर नस वाले रक्षा और सैन्य अधिकारियों की पहचान.
कमोबेश सभी भूमि घोटालों में अफसरों की सांठगांठ देखने को मिली है
इकत्तीस जनवरी को सीबीआइ ने सेना के पूर्व उप-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) नोबेल थंबुराज के घर पर एक भूमि घोटाले में उनकी कथित भागीदारी के सिलसिले में छापा मारा. सेना की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि थंबुराज ने एक बिल्डर के साथ अदालत के बाहर एक समझैता किया था, जिसके परिणामस्वरूप सरकार को पुणे छावनी क्षेत्र में 45 करोड़ रु. मूल्य की बेशकीमती 0.96 एकड़ जमीन गंवानी पड़ी थी. पिछले पांच वर्षों में उजागर अधिकांश सैन्य भूमि घोटालों में डिफेंस एस्टेट अधिकारियों की सेना अधिकारियों और निजी डेवलपरों के साथ सांठगांठ पाई गई है. कारण जानने के लिए बहुत गहराई में झंकने की जरूरत नहीं. सैनिक अड्डों पर डीजीडीई का प्रतिनिधित्व डिफेंस एस्टेट के अधिकारियों द्वारा किया जाता है. ये अधिकारी फौजी जमीन के संरक्षक होते हैं. भूमि का इस्तेमाल सेना करती है. देश भर के सभी 62 छावनी बोर्डों में स्थानीय प्रशासन का नेतृत्व उस सैनिक क्षेत्र का जनरल ऑफिसर कमांडिंग करता है. छावनी क्षेत्र के भीतर इमारतों के निर्माण की अनुमति बोर्ड देता है.
2. उस जमीन को निशाना बनाओ, जो सैन्य रिकॉर्ड में दर्ज न हो
घोटालेबाज जमीन के दस्तावेज कमजोर होने का लाभ उठाते हैं
कुल फौजी जमीन का 25 फीसदी ऐसा है जिसका ब्यौरा डिफेंस एस्टेट डिपार्टमेंट के भूमि रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है. इसके लिए सुस्त अफसरशाही दोषी है. जब लैंड-होल्डिंग अस्पष्ट होती है, तो यह जमीन हड़पने वालों द्वारा नोचे जाने के लिए ज्यादा मुफीद हो जाती है.
उदाहरण के लिए आदर्श घोटाले में, जो हाउसिंग सोसाइटी रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों और डिफेंस एस्टेट के अधिकारियों ने बनाई थी, उसने दक्षिण मुंबई के कोलाबा में फुटबॉल के मैदान के आकार के बेशकीमती भूखंड पर मकान बना डाले. जमीन सेना के पास थी, लेकिन स्वामित्व राज्य सरकार के पास था. कोई रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं था. डिफेंस एस्टेट और सैन्य अधिकारियों की जुगलबंदी ने आगे बढ़कर एक वाणिद्गियक रिहायशी टॉवर बना डाला.
3. फौजी जमीन पर दबे पैर अतिक्रमण करो
बिल्डर चारों ओर के निजी भूखंड खरीदकर रक्षा भूमि की घेराबंदी कर लेते हैं
रक्षा भूमि इस्तेमाल में नहीं आती, उसकी अमूमन बाड़ भी नहीं लगाई गई होती है. देखा गया है कि कई बार जमीन हड़पने वाले खाली पड़ी रक्षा भूमि के चारों ओर की निजी भूमि खरीद लेते हैं और फिर धीरे-धीरे रक्षा भूमि को घेर लेते हैं. यह काम 2009 में उजागर हुए श्रीनगर वायुसेना भूमि घोटाले के मामले में किया गया. 1500 करोड़ रु. से ज्यादा की लगभग 200 एकड़ बेशकीमती रक्षा भूमि चोरी छिपे कई वर्षों में बेच दी गई.
डिफेंस एस्टेट के अधिकारी यह दिखाने के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर देते थे कि यह जमीन रक्षा मंत्रालय की कभी थी ही नहीं, जबकि रक्षा मंत्रालय ने इसे 1966 में ही खरीदा था. इसी तरह एक अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही चीज है, कैंपिंग ग्राउंड, जो सैनिक क्षेत्रों के बाहरी इलाकों की तरफ होता है. इसे भी शिकार के लिए एकदम उपयुक्त माना जाता है.
डीजीडीई से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लैंड-बैंक की स्थिति परखने के लिए जमीन का ऑडिट करेगा. आखिरी बार बड़े पैमाने पर ऑडिट सन् 2000 में किया गया था. विभाग हर वर्ष अपने कब्जे वाली जमीन का पहले से कम आकलन पेश कर देता है. अतिक्रमणों को 'एक जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्या' करार दे दिया गया है. विवादित भूखंडों के सर्वे, जिनका आदेश समय गुजारने के लिए दे दिया जाता है, राज्य सरकार के साथ मिलकर किए जाते हैं और इनमें पांच वर्ष से भी ज्यादा समय लग सकता है.
जमीन की सुरक्षा की जिम्मेदारी में घालमेल हो जाता है और जमीन का स्वामित्व भी अस्पष्ट होता है. दोषी अधिकारियों को सिर्फ तब सजा मिलती है, जब सार्वजनिक तौर पर भारी शोर-शराबा हो गया हो. सीबीआइ अभी तीन रक्षा भूमि घोटालों की जांच कर रही है-आदर्श, कांदिवली और लोहेगांव, पुणे. 2011 में उजागर हुए लोहेगांव भूमि घोटाले में, तीन घोटालेबाजों ने 800 करोड़ रु. की 69 एकड़ फौजी जमीन के स्वामित्व का दावा करने वाले फर्जी दस्तावेज तैयार कर लिए थे.
4. ओल्ड ग्रांट बंगलों को निशाना बनाएं
खरीदार पेशकश करते हैं कि वे पुराने मकान तोड़कर उस जगह नई रिहाइशी इमारत बनवाएंगे
ओल्ड ग्रांट बंगले अंग्रेजों के जमाने के मकान हैं, जो बेशकीमती सरकारी जमीन पर बने होते हैं. ज्यादातर सैनिक अड्डे और छावनियां इन बंगलों से पटी पड़ी हैं. अब वे बेशकीमती हैं, क्योंकि वे जिस जमीन पर खड़े हैं, वह बेशकीमती हो गई है. इस जमीन का स्वामित्व सरकार का होता है.
तरीका यह होता है कि बिल्डर मूल किराएदारों के पास पहुंचता है और उन्हें पैसे देकर अपने पक्ष में कर लेता है. बंगलों को 'डी-हायर' किया जाता है-यानी वह प्रक्रिया जिसमें सरकार किराया वसूलना बंद कर देती है. इसके बाद बिल्डर छावनी बोर्ड से संपर्क करता है और उससे 'जीर्ण-शीर्ण' इमारत को ढहाने और उसकी जगह एक नई रिहाइशी इमारत बना देने की पेशकश करता है.
2011 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के किए गए ऑडिट में लखनऊ, अल्मोड़ा, कानपुर, रानीखेत और बरेली में सैन्य क्षेत्रों में ऐसे 16 बंगलों का उल्लेख इस रूप में है कि इन्हें 150 करोड़ रु. में अवैध ढंग से बेचा गया है. ऐसे कई और मामले भी ऑडिट अधिकारियों की निगाह से गुजर रहे हैं. मेरठ छावनी में, पुराने ग्रांट बंगलों की जगह पर स्कूल, कॉलेज और रिहाइशी इमारतें बना दी गई हैं. 2010 की सीएजी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि पुणे छावनी में किस तरह एक पुराने ग्रांट बंगले के स्थान पर रेजिडेंसी क्लब बना दिया गया.
5. फौजी जमीन के स्वामित्व को अदालत में चुनौती दो
चूंकि बचाव पक्ष कानूनी तौर पर कमजोर है, सो अदालती प्रक्रिया लंबी खिंचेगी
डीजीडीई की सबसे कमजोर नस है अतिक्रमण की चपेट में आई रक्षा भूमि का अदालत में बचाव कर सकने में उसकी नाकामी. अनुमान है कि रक्षा भूमि को लेकर विभिन्न अदालतों में करीब 13,000 मामले लंबित चल रहे हैं. इन मामलों से जिस ढंग से निबटा जा रहा है, वह चिंताजनक है. सरकार लंबित मामलों की सुनवाई के दौरान समय पर अपने जवाब दर्ज नहीं करवाती है और अदालत की प्रक्रिया दशकों तक खिंचती जाती है. कंट्रोलर जनरल ऑफ डिफेंस एकाउंट्स (सीजीडीए) द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि डिफेंस एस्टेट विभाग के पास उनके मुकदमे लड़ने के लिए एक पृथक कानूनी विभाग होना चाहिए. इस सुझाव पर किसी ने गौर नहीं किया.
रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं, ''डिफेंस एस्टेट के अधिकारी खुद को हालात के मारे की तरह पेश करते हैं. भ्रष्ट अधिकारियों को यही जंचता है कि सरकार की तरफ से अदालत में कमजोर कानूनी बचाव पेश किया जाए, ताकि वे मुकदमा हार जाएं.''
सीजीडीए के अधिकारी कहते हैं कि देश भर में कानूनी विवादों में 'हजारों करोड़ रुपयों' की जमीन फंसी पड़ी है. इस मामले में गौर करने लायक एक मामला है सिकंदराबाद में रक्षा भूमि पर छह एकड़ का एक भूखंड, जिस पर रक्षा लेखा विभाग ने मकान बनाए हैं. 2002 में हाइकोर्ट का फैसला एक निजी फर्म के पक्ष में गया. लेकिन रक्षा मंत्रालय ने इस फैसले के खिलाफ अपील की और मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है.
इस मामले में मंत्रालय के समक्ष जो विकल्प हैं, वे काफी गंभीर हैं. या तो उसे सारी इमारतें ढहाकर जमीन निजी सोसायटी को लौटानी होगी, या जमीन की बाजार कीमत के तौर पर 100 करोड़ रु. चुकाने होंगे.
सौजन्य:
संदीप उन्नीथन | सौजन्य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 12 फरवरी 2012 | अपडेटेड: 19:07 IST http://aajtak.intoday.in/story/Five-ways-to-capture-military-land-1-691394.html
डीजीडीई रक्षा मंत्रालय में वह विभाग है, जो अतिक्रमण के खतरे वाली 20 लाख करोड़ रु. मूल्य की 17 लाख एकड़ से ज्यादा जमीन के ऑडिट, लेखांकन और वित्तीय प्रबंधन के लिए जिम्मेदार है. इसमें से लगभग 11,000 एकड़ जमीन चुराई जा चुकी है और किसी को इसकी परवाह नहीं है. हजारों करोड़ रु. मूल्य की जमीन के रिकॉर्ड सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक डाटाबेस के बजाए जीर्ण-शीर्ण कागज के रजिस्टरों में दर्ज हैं. इस जमीन का सीमांकन नहीं हुआ है और इससे भी खराब बात यह है कि सेना के अधिकारियों, डिफेंस एस्टेट के अधिकारियों और बिल्डरों की एक भ्रष्ट सांठगांठ इस जमीनी पूंजी में से मोटा हिस्सा हड़प लेती है.
डीजीडीई के पास सैन्य भूमि को संभालने के लिए 1,251 अधिकारी हैं, लेकिन इसकी सुरक्षा कर सकने में नाकाम रहने के लिए किसी को भी जिम्मेदार नहीं माना गया है. रक्षा मंत्रालय को अपना प्रस्तावित रक्षा भूमि प्रबंधन विधेयक संसद में पेश करना अभी बाकी है. अगर फौजी जमीन को लूटने के लिए कोई घोटालेबाज अपना मैनुअल बनाए, तो वह कुछ इस प्रकार होगाः
1. कमजोर नस वाले रक्षा और सैन्य अधिकारियों की पहचान.
कमोबेश सभी भूमि घोटालों में अफसरों की सांठगांठ देखने को मिली है
इकत्तीस जनवरी को सीबीआइ ने सेना के पूर्व उप-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) नोबेल थंबुराज के घर पर एक भूमि घोटाले में उनकी कथित भागीदारी के सिलसिले में छापा मारा. सेना की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि थंबुराज ने एक बिल्डर के साथ अदालत के बाहर एक समझैता किया था, जिसके परिणामस्वरूप सरकार को पुणे छावनी क्षेत्र में 45 करोड़ रु. मूल्य की बेशकीमती 0.96 एकड़ जमीन गंवानी पड़ी थी. पिछले पांच वर्षों में उजागर अधिकांश सैन्य भूमि घोटालों में डिफेंस एस्टेट अधिकारियों की सेना अधिकारियों और निजी डेवलपरों के साथ सांठगांठ पाई गई है. कारण जानने के लिए बहुत गहराई में झंकने की जरूरत नहीं. सैनिक अड्डों पर डीजीडीई का प्रतिनिधित्व डिफेंस एस्टेट के अधिकारियों द्वारा किया जाता है. ये अधिकारी फौजी जमीन के संरक्षक होते हैं. भूमि का इस्तेमाल सेना करती है. देश भर के सभी 62 छावनी बोर्डों में स्थानीय प्रशासन का नेतृत्व उस सैनिक क्षेत्र का जनरल ऑफिसर कमांडिंग करता है. छावनी क्षेत्र के भीतर इमारतों के निर्माण की अनुमति बोर्ड देता है.
2. उस जमीन को निशाना बनाओ, जो सैन्य रिकॉर्ड में दर्ज न हो
घोटालेबाज जमीन के दस्तावेज कमजोर होने का लाभ उठाते हैं
कुल फौजी जमीन का 25 फीसदी ऐसा है जिसका ब्यौरा डिफेंस एस्टेट डिपार्टमेंट के भूमि रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है. इसके लिए सुस्त अफसरशाही दोषी है. जब लैंड-होल्डिंग अस्पष्ट होती है, तो यह जमीन हड़पने वालों द्वारा नोचे जाने के लिए ज्यादा मुफीद हो जाती है.
उदाहरण के लिए आदर्श घोटाले में, जो हाउसिंग सोसाइटी रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों और डिफेंस एस्टेट के अधिकारियों ने बनाई थी, उसने दक्षिण मुंबई के कोलाबा में फुटबॉल के मैदान के आकार के बेशकीमती भूखंड पर मकान बना डाले. जमीन सेना के पास थी, लेकिन स्वामित्व राज्य सरकार के पास था. कोई रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं था. डिफेंस एस्टेट और सैन्य अधिकारियों की जुगलबंदी ने आगे बढ़कर एक वाणिद्गियक रिहायशी टॉवर बना डाला.
3. फौजी जमीन पर दबे पैर अतिक्रमण करो
बिल्डर चारों ओर के निजी भूखंड खरीदकर रक्षा भूमि की घेराबंदी कर लेते हैं
रक्षा भूमि इस्तेमाल में नहीं आती, उसकी अमूमन बाड़ भी नहीं लगाई गई होती है. देखा गया है कि कई बार जमीन हड़पने वाले खाली पड़ी रक्षा भूमि के चारों ओर की निजी भूमि खरीद लेते हैं और फिर धीरे-धीरे रक्षा भूमि को घेर लेते हैं. यह काम 2009 में उजागर हुए श्रीनगर वायुसेना भूमि घोटाले के मामले में किया गया. 1500 करोड़ रु. से ज्यादा की लगभग 200 एकड़ बेशकीमती रक्षा भूमि चोरी छिपे कई वर्षों में बेच दी गई.
डिफेंस एस्टेट के अधिकारी यह दिखाने के लिए अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर देते थे कि यह जमीन रक्षा मंत्रालय की कभी थी ही नहीं, जबकि रक्षा मंत्रालय ने इसे 1966 में ही खरीदा था. इसी तरह एक अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही चीज है, कैंपिंग ग्राउंड, जो सैनिक क्षेत्रों के बाहरी इलाकों की तरफ होता है. इसे भी शिकार के लिए एकदम उपयुक्त माना जाता है.
डीजीडीई से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लैंड-बैंक की स्थिति परखने के लिए जमीन का ऑडिट करेगा. आखिरी बार बड़े पैमाने पर ऑडिट सन् 2000 में किया गया था. विभाग हर वर्ष अपने कब्जे वाली जमीन का पहले से कम आकलन पेश कर देता है. अतिक्रमणों को 'एक जटिल सामाजिक-आर्थिक समस्या' करार दे दिया गया है. विवादित भूखंडों के सर्वे, जिनका आदेश समय गुजारने के लिए दे दिया जाता है, राज्य सरकार के साथ मिलकर किए जाते हैं और इनमें पांच वर्ष से भी ज्यादा समय लग सकता है.
जमीन की सुरक्षा की जिम्मेदारी में घालमेल हो जाता है और जमीन का स्वामित्व भी अस्पष्ट होता है. दोषी अधिकारियों को सिर्फ तब सजा मिलती है, जब सार्वजनिक तौर पर भारी शोर-शराबा हो गया हो. सीबीआइ अभी तीन रक्षा भूमि घोटालों की जांच कर रही है-आदर्श, कांदिवली और लोहेगांव, पुणे. 2011 में उजागर हुए लोहेगांव भूमि घोटाले में, तीन घोटालेबाजों ने 800 करोड़ रु. की 69 एकड़ फौजी जमीन के स्वामित्व का दावा करने वाले फर्जी दस्तावेज तैयार कर लिए थे.
4. ओल्ड ग्रांट बंगलों को निशाना बनाएं
खरीदार पेशकश करते हैं कि वे पुराने मकान तोड़कर उस जगह नई रिहाइशी इमारत बनवाएंगे
ओल्ड ग्रांट बंगले अंग्रेजों के जमाने के मकान हैं, जो बेशकीमती सरकारी जमीन पर बने होते हैं. ज्यादातर सैनिक अड्डे और छावनियां इन बंगलों से पटी पड़ी हैं. अब वे बेशकीमती हैं, क्योंकि वे जिस जमीन पर खड़े हैं, वह बेशकीमती हो गई है. इस जमीन का स्वामित्व सरकार का होता है.
तरीका यह होता है कि बिल्डर मूल किराएदारों के पास पहुंचता है और उन्हें पैसे देकर अपने पक्ष में कर लेता है. बंगलों को 'डी-हायर' किया जाता है-यानी वह प्रक्रिया जिसमें सरकार किराया वसूलना बंद कर देती है. इसके बाद बिल्डर छावनी बोर्ड से संपर्क करता है और उससे 'जीर्ण-शीर्ण' इमारत को ढहाने और उसकी जगह एक नई रिहाइशी इमारत बना देने की पेशकश करता है.
2011 में भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के किए गए ऑडिट में लखनऊ, अल्मोड़ा, कानपुर, रानीखेत और बरेली में सैन्य क्षेत्रों में ऐसे 16 बंगलों का उल्लेख इस रूप में है कि इन्हें 150 करोड़ रु. में अवैध ढंग से बेचा गया है. ऐसे कई और मामले भी ऑडिट अधिकारियों की निगाह से गुजर रहे हैं. मेरठ छावनी में, पुराने ग्रांट बंगलों की जगह पर स्कूल, कॉलेज और रिहाइशी इमारतें बना दी गई हैं. 2010 की सीएजी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया गया है कि पुणे छावनी में किस तरह एक पुराने ग्रांट बंगले के स्थान पर रेजिडेंसी क्लब बना दिया गया.
5. फौजी जमीन के स्वामित्व को अदालत में चुनौती दो
चूंकि बचाव पक्ष कानूनी तौर पर कमजोर है, सो अदालती प्रक्रिया लंबी खिंचेगी
डीजीडीई की सबसे कमजोर नस है अतिक्रमण की चपेट में आई रक्षा भूमि का अदालत में बचाव कर सकने में उसकी नाकामी. अनुमान है कि रक्षा भूमि को लेकर विभिन्न अदालतों में करीब 13,000 मामले लंबित चल रहे हैं. इन मामलों से जिस ढंग से निबटा जा रहा है, वह चिंताजनक है. सरकार लंबित मामलों की सुनवाई के दौरान समय पर अपने जवाब दर्ज नहीं करवाती है और अदालत की प्रक्रिया दशकों तक खिंचती जाती है. कंट्रोलर जनरल ऑफ डिफेंस एकाउंट्स (सीजीडीए) द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि डिफेंस एस्टेट विभाग के पास उनके मुकदमे लड़ने के लिए एक पृथक कानूनी विभाग होना चाहिए. इस सुझाव पर किसी ने गौर नहीं किया.
रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं, ''डिफेंस एस्टेट के अधिकारी खुद को हालात के मारे की तरह पेश करते हैं. भ्रष्ट अधिकारियों को यही जंचता है कि सरकार की तरफ से अदालत में कमजोर कानूनी बचाव पेश किया जाए, ताकि वे मुकदमा हार जाएं.''
सीजीडीए के अधिकारी कहते हैं कि देश भर में कानूनी विवादों में 'हजारों करोड़ रुपयों' की जमीन फंसी पड़ी है. इस मामले में गौर करने लायक एक मामला है सिकंदराबाद में रक्षा भूमि पर छह एकड़ का एक भूखंड, जिस पर रक्षा लेखा विभाग ने मकान बनाए हैं. 2002 में हाइकोर्ट का फैसला एक निजी फर्म के पक्ष में गया. लेकिन रक्षा मंत्रालय ने इस फैसले के खिलाफ अपील की और मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है.
इस मामले में मंत्रालय के समक्ष जो विकल्प हैं, वे काफी गंभीर हैं. या तो उसे सारी इमारतें ढहाकर जमीन निजी सोसायटी को लौटानी होगी, या जमीन की बाजार कीमत के तौर पर 100 करोड़ रु. चुकाने होंगे.
सौजन्य:
संदीप उन्नीथन | सौजन्य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 12 फरवरी 2012 | अपडेटेड: 19:07 IST http://aajtak.intoday.in/story/Five-ways-to-capture-military-land-1-691394.html
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